कारगिल विजय दिवस: शहीदों की गाथा और गोरखपुर के सपूतों का बलिदान
आज स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या पर एक ऐसे हीरो की शौर्य और परिवार की करुण कहानी जानिए –
1999 की बर्फीली चोटियों पर, दुश्मन से आख़िरी सांस तक लड़ने वाला जवान — शहीद मार्कंडेय मिश्र।
गोरखपुर के चौरीचौरा क्षेत्र के छोटे से गांव अवधपुर का बेटा… जिसने अपना सब कुछ देश के नाम कर दिया।
लेकिन आज…
उसका घर सूना है।
चूल्हा ठंडा पड़ चुका है।
माता-पिता मुफलिसी में दुनिया छोड़ गए, बहन बीमारी में चली गई।
पत्नी और बेटियां दूर हैं, और गांव में उनके नाम पर बस एक वीरान आंगन बाकी है।
26 जुलाई को हम सब “कारगिल विजय दिवस” पर गर्व से झूमते हैं…
लेकिन क्या सिर्फ एक दिन का गर्व, उनके परिवार के खाली घर को भर सकता है?
कारगिल विजय दिवस, यानी 26 जुलाई, स्वतंत्र भारत के इतिहास में एक गौरवपूर्ण दिन है। यह वह दिन है जब लगभग 60 दिनों तक चले कारगिल युद्ध का समापन हुआ और भारत ने पाकिस्तानी सेना के खिलाफ शानदार विजय हासिल की। इस युद्ध में अपने प्राणों की आहुति देने वाले शहीद जवानों के सम्मान में यह दिन पूरे देश में गर्व और श्रद्धा के साथ मनाया जाता है। गोरखपुर के वीर सपूतों ने भी इस युद्ध में देश के मान और सम्मान के लिए अपने प्राण न्योछावर किए। हर गोरखपुरवासी अपने इन शहीदों के बलिदान पर गर्व करता है, जिन्होंने मातृभूमि की रक्षा के लिए सर्वस्व समर्पित कर दिया।
गोरखपुर के शहीद मार्कंडेय मिश्र की कहानी
गोरखपुर के चौरीचौरा क्षेत्र के अवधपुर गांव के निवासी शिवपूजन मिश्र के पुत्र मार्कंडेय मिश्र की कहानी किसी प्रेरणा से कम नहीं है। गरीबी और मुफलिसी के बीच पले-बढ़े मार्कंडेय ने कठिन परिश्रम और लगन से पढ़ाई की और भारतीय सेना में भर्ती हो गए। वर्ष 1999 में कारगिल युद्ध के दौरान वे नियंत्रण रेखा पर तैनात थे। इस युद्ध में उन्होंने वीरता के साथ देश की रक्षा की, लेकिन पाकिस्तानी सेना से लोहा लेते हुए वे शहीद हो गए। उनकी शहादत ने पूरे गांव की आंखें नम कर दीं, लेकिन साथ ही उनके बलिदान ने सभी के सीने को गर्व से भर दिया।
शहीद मार्कंडेय मिश्र के चचेरे भाई गिरिजाशंकर मिश्र ने बताया कि उनके चाचा शिवपूजन मिश्र तरकुलहा देवी मंदिर में पूजा-पाठ और सत्यनारायन भगवान की कथा सुनाकर अपने परिवार का भरण-पोषण करते थे। खेती-बाड़ी बहुत कम थी, जिसके कारण परिवार की आर्थिक स्थिति हमेशा कमजोर रही। शिवपूजन मिश्र के दो बेटे थे। बड़े बेटे मार्कंडेय सेना में भर्ती हुए और परिवार की उम्मीदों का सहारा बने। लेकिन छोटे बेटे योगेंद्र की मात्र 14 वर्ष की आयु में इंसेफेलाइटिस से मृत्यु हो गई। इस तरह मार्कंडेय ही अपने बूढ़े माता-पिता के लिए एकमात्र सहारा थे।
शहीद के परिवार की दुखद स्थिति
कारगिल युद्ध में मार्कंडेय की शहादत के बाद उनके परिवार पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा। शासन-प्रशासन ने शुरुआत में कई वायदे किए, लेकिन कुछ ही महीनों बाद ये वायदे खोखले साबित हुए। मार्कंडेय की पत्नी मंजू अपनी तीन बेटियों के साथ कुछ सरकारी सहायता लेकर अपने मायके चली गईं। वर्तमान में मंजू सेना के अस्पताल में सरकारी नौकरी कर रही हैं और उन्हें पेंशन भी मिल रही है। लेकिन शहीद के माता-पिता, शिवपूजन मिश्र और फूलमती देवी, मुफलिसी में ही जिंदगी गुजारते रहे।
गिरिजाशंकर ने बताया कि मार्कंडेय की पत्नी के मायके चले जाने के बाद परिवार पूरी तरह बिखर गया। वर्ष 2006 में शिवपूजन मिश्र का निधन हो गया, और दो साल बाद 2008 में फूलमती देवी भी दुनिया छोड़ गईं। शहीद की बहन मीरा, जो ससुराल छोड़कर अपने माता-पिता के पास रह रही थी, मानसिक रूप से अस्थिर हो गईं। वह गांव में अकेले भटकती रहती थीं। इसी वर्ष उनकी तबीयत बिगड़ गई, और इलाज के लिए उन्हें वाराणसी ले जाया गया, जहां उनकी मृत्यु हो गई।
एक परिवार का बिखराव और शहीद की विरासत
आज शहीद मार्कंडेय मिश्र का परिवार पूरी तरह बिखर चुका है। उनके घर में न तो चूल्हा जलता है और न ही कोई संझवत (शाम की दीया जलाने वाला) बचा है। यह कहानी न केवल मार्कंडेय के बलिदान की है, बल्कि उस परिवार की भी है, जो अपने वीर सपूत को खोने के बाद धीरे-धीरे मुफलिसी और अकेलेपन की भेंट चढ़ गया।
कारगिल विजय दिवस हमें उन सभी शहीदों की याद दिलाता है, जिन्होंने देश के लिए अपने प्राणों की आहुति दी। मार्कंडेय मिश्र जैसे वीरों की शहादत हमें यह सिखाती है कि देश की रक्षा और सम्मान से बड़ा कोई धर्म नहीं। गोरखपुर के लोग आज भी अपने इस वीर सपूत को याद करते हैं और उनके बलिदान को सलाम करते हैं। यह हमारी जिम्मेदारी है कि हम न केवल इन शहीदों को याद करें, बल्कि उनके परिवारों की सुध भी लें, ताकि उनकी शहादत का सम्मान सही मायने में हो सके।