ग्रेनेडियर रमेश यादव
नीमराना (कोटपुतली-बहरोड़), 11 नवंबर 2025: देश की रक्षा करते हुए दुश्मनों के लिए खौफ बन चुके एक बहादुर सैनिक आज अपनी जिंदगी की जंग लड़ रहे हैं। राजस्थान के नीमराना के पास जोणायचा खुर्द गांव में रहने वाले ग्रेनेडियर रमेश यादव (39 वर्ष) पिछले 9 साल से बेड पर हैं। एक हाथ कट चुका है, शरीर लकवाग्रस्त हो चुका है, खोपड़ी में आर्टिफिशिएल बोन लगा है और बिना सहारे के उठना तक मुश्किल है।
31 जुलाई 2016 को जम्मू-कश्मीर के कुपवाड़ा जंगल में आतंकवादियों द्वारा फेंके गए ग्रेनेड ब्लास्ट ने उनकी जिंदगी हमेशा के लिए बदल दी। कई ऑपरेशंस में AK-47 से आतंकियों को ढेर करने वाले रमेश यादव को अब सरकारी नियमों की जटिलताओं के चलते युद्ध दिव्यांगता के पूरे लाभ भी नहीं मिल पा रहे हैं।
फौजी जीवन
रमेश यादव ने साल 2003 में मध्य प्रदेश के जबलपुर स्थित ग्रेनेडियर रेजिमेंट से अपनी फौजी जिंदगी की शुरुआत की। इसके बाद उन्होंने देश की सेवा में कई जगहों पर ड्यूटी निभाई। राजस्थान के सूरतगढ़, विदेश में कांगो मिशन, उत्तराखंड के राणीखेत, मणिपुर, डीआरडीओ और अंत में जम्मू-कश्मीर के कुपवाड़ा में तैनाती। रमेश बॉक्सिंग के शौकीन थे और अपने समय के बेहतरीन बॉक्सर रहे। बॉर्डर पर दुश्मनों से लोहा लेते हुए उन्होंने कई आतंकवादियों को मौत के घाट उतारा।
लेकिन 31 जुलाई 2016 का वह दिन सबकुछ बदल गया। कुपवाड़ा के घने जंगलों में चल रहे ऑपरेशन के दौरान आतंकवादियों ने ग्रेनेड फेंका। ब्लास्ट इतना जोरदार था कि रमेश यादव का एक हाथ कट गया, सिर बुरी तरह फट गया और पूरे शरीर में पैरालिसिस हो गया। “खोपड़ी की यह दशा देख रहे हैं, इसमें 20 सर्जरी हो चुकी हैं,” रमेश यादव ने अपना कटा-फटा सिर दिखाते हुए बताया।
हादसे के तुरंत बाद उन्हें एयरलिफ्ट कर श्रीनगर ले जाया गया। फिर उधमपुर के कमांड हॉस्पिटल, पुणे और दिल्ली में लंबा इलाज चला। बोलना तक बंद हो गया था, दिमागी संतुलन खोने का खतरा था और बोन फ्रैक्चर ने हालात और गंभीर कर दिए।
परिवार की अनथक सेवा और सरकारी उदासीनता का दर्द
आज रमेश यादव बिस्तर पर लेटे रहते हैं। उन्हें सहारा देकर उठाया जाता है। दिन-रात उनकी पत्नी मनीषा उनकी देखभाल करती हैं। मां-बाप का इकलौता बेटा रमेश के तीन बच्चे हैं। परिवार की सारी जिम्मेदारी मनीषा पर है। रमेश को पेंशन मिल रही है और सेना पर उन्हें फख्र है, लेकिन सरकारी स्तर पर मिलने वाले बैटल कैजुअल्टी (युद्ध घायल) के लाभों की कमी उन्हें सालती रहती है।
सबसे बड़ा दर्द यह है कि हादसे के बाद उनके रिकॉर्ड में सिर्फ 4 साल की सर्विस दिखाई गई है, जिसके चलते जमीन आवंटन सहित कई अन्य लाभ नहीं मिले। “नियम-कायदों का हवाला देकर सब रोक दिया जाता है,” रमेश ने दुखी स्वर में कहा। वे कहते हैं, “मेरी जिंदगी भले बदल गई, लेकिन मैं देश के काम आ सका, यह गर्व की बात है।” आम दुनिया से दूर चारदीवारी तक सिमट चुकी उनकी जिंदगी में अब सिर्फ परिवार का सहारा है।
गांव और समाज
जोणायचा खुर्द गांव में रमेश यादव की कहानी सुनकर हर कोई भावुक हो जाता है।स्थानीय लोग कहते हैं कि ऐसे बहादुर सैनिकों को पूरा सम्मान और सुविधाएं मिलनी चाहिए। कोटपुतली-बहरोड़ क्षेत्र से आने वाली यह कहानी देश के उन हजारों सैनिकों की याद दिलाती है जो सीमाओं पर जान जोखिम में डालकर हमारी रक्षा करते हैं, लेकिन घायल होने पर अकेले पड़ जाते हैं।
रमेश यादव की यह दास्तान न सिर्फ व्यक्तिगत संघर्ष की है, बल्कि युद्ध दिव्यांगों के लिए बेहतर नीतियों की मांग भी करती है। क्या सरकार ऐसे वीरों की पुकार सुनेगी? यह सवाल अब भी अनुत्तरित है।
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