राहुल गांधी — विदेश की धरती से भारत को बदनाम करना।
हाल ही में कोलम्बिया में दिए गए उनके बयान ने एक बार फिर भारतीय राजनीति में तूफ़ान खड़ा कर दिया है। कांग्रेस नेता ने अपने भाषण में कहा कि “भारत में लोकतंत्र पर व्यापक हमला हो रहा है” और भारत की तुलना चीन जैसे केंद्रीकृत मॉडल से की। सवाल यह है कि क्या यह महज़ एक राजनीतिक टिप्पणी थी, या फिर अंतरराष्ट्रीय मंच पर भारत की छवि को धूमिल करने की कोशिश?

विदेश में बयानबाज़ी और विवाद
राहुल गांधी ने कोलम्बिया के EIA विश्वविद्यालय में छात्रों से कहा कि भारत की लोकतांत्रिक संस्थाएँ दबाव में हैं और लोकतंत्र खतरे में है। उन्होंने यहाँ तक कहा कि भारत के सामने सबसे बड़ी चुनौती है लोकतंत्र पर हमला।
सोचने वाली बात है कि यह बयान उन्होंने भारत की संसद में या जनता के बीच देने के बजाय विदेशी धरती पर क्यों दिया? क्या यह भारत के लोकतंत्र की रक्षा के लिए था, या फिर भारत विरोधी ताक़तों को गोला-बारूद देने के लिए?
ये बयान किसके काम आते हैं?
क्या यह वही नैरेटिव नहीं है जिसे भारत-विरोधी ताक़तें हमेशा फैलाने की कोशिश करती हैं?
1- विदेशी मीडिया – जिसे भारत की नकारात्मक छवि दिखाकर अपनी टीआरपी और खबरें बेचने का मौका मिलता है।
2- पाकिस्तान और उसके समर्थक – जो हमेशा से कहते आए हैं कि भारत लोकतंत्र के नाम पर ढोंग कर रहा है। अब वे राहुल गांधी के बयान को सबूत की तरह इस्तेमाल करते हैं।
३- भारत-विरोधी ताक़तें – जिन्हें अंदर से कमजोर और विभाजित भारत चाहिए। राहुल गांधी के शब्द सीधे-सीधे उनके लिए “ईंधन” का काम करते हैं।
जनता की नजर में ‘भारत तोड़ो राजनीति’
जनता का कहना है कि राहुल गांधी का रवैया उन्हें सीधे-सीधे देश विरोधी शक्तियों के साथ खड़ा करता है।
जब वे कहते हैं कि भारत में लोकतंत्र खत्म हो रहा है, तो इसका फायदा किन्हें होता है?
जब वे चीन के केंद्रीकृत मॉडल की प्रशंसा करते हैं, तो क्या वे भारत की लोकतांत्रिक ताक़त को कमतर नहीं बताते?
जब वे सेना और सुरक्षा बलों पर सवाल उठाते हैं, तो क्या वे पाकिस्तान और चीन जैसी ताक़तों को मजबूत नहीं करते?
राहुल गांधी और सेना पर सवाल
यह पहली बार नहीं है जब राहुल गांधी के बयानों ने विवाद खड़ा किया हो।
सर्जिकल स्ट्राइक और एयर स्ट्राइक पर उन्होंने सवाल उठाए।
सरकार से सबूत माँगकर सेना के मनोबल पर चोट की।
विपक्षी दलों ने उनके रवैये को “देशभक्ति के खिलाफ” बताया।
अब लोकतंत्र को लेकर दिया गया बयान उस क्रम का ही हिस्सा माना जा रहा है।
संसद छोड़ विदेश का रास्ता क्यों?

भारत की संसद और लोकतांत्रिक मंच पर चर्चा करने के बजाय राहुल गांधी बार-बार यूरोप, अमेरिका, ब्रिटेन और अब लैटिन अमेरिका जाकर वही बातें दोहराते हैं।
यह रवैया बताता है कि वे जनता को संबोधित करने से ज़्यादा विदेशी मीडिया और विदेशी ताक़तों की तालियाँ पाना पसंद करते हैं।
यही वजह है कि आलोचक कहते हैं — राहुल गांधी को भारत की समस्याओं का समाधान नहीं चाहिए, बल्कि भारत की छवि को धूमिल करके राजनीतिक फायदा चाहिए।
“भारत जोड़ो” या “भारत तोड़ो”?
राहुल गांधी की यात्रा का नाम भारत जोड़ो था। लेकिन सवाल उठता है कि क्या उनके बयान वास्तव में भारत को जोड़ते हैं, या तोड़ते हैं?
जब वे लोकतंत्र को “समाप्त” बताते हैं, तो इससे देशवासियों का मनोबल गिरता है।
जब वे सेना की कार्रवाइयों पर संदेह जताते हैं, तो इससे सुरक्षा बलों का विश्वास कम होता है।
और जब वे विदेशों में जाकर भारत को बदनाम करते हैं, तो इससे हमारे दुश्मनों का हौसला बढ़ता है।
विपक्ष और सत्तापक्ष की प्रतिक्रियाएँ
भाजपा नेताओं ने राहुल गांधी को आड़े हाथों लेते हुए कहा कि वे बार-बार “भारत की छवि बिगाड़ने का खेल” खेल रहे हैं।
भाजपा प्रवक्ता ने कहा कि “राहुल गांधी का हर बयान पाकिस्तान और चीन के एजेंडे को मजबूत करता है।”
एक अन्य नेता ने आरोप लगाया कि “भारत जोड़ो का नारा देने वाले राहुल गांधी वास्तव में भारत तोड़ो राजनीति के चेहरे हैं।”
वहीं कांग्रेस का कहना है कि राहुल गांधी सच्चाई बोल रहे हैं और लोकतंत्र की रक्षा कर रहे हैं। लेकिन राजनीतिक माहौल में यह बहस अब तेज हो गई है कि क्या इस तरह के बयान सचमुच लोकतंत्र को बचाते हैं या फिर भारत की साख को चोट पहुँचाते हैं।
जनता के मन में उठते सवाल
आम भारतीयों के मन में अब यह सवाल उठ रहा है —
क्या राहुल गांधी वाकई लोकतंत्र बचाना चाहते हैं या फिर राजनीति चमकाने के लिए भारत को बदनाम कर रहे हैं?
क्या भारत का भविष्य ऐसे नेता के हाथों सुरक्षित है, जो बार-बार विदेशी धरती से अपनी ही मातृभूमि पर सवाल खड़े करता है?
क्या यह रवैया देशभक्ति कहलाएगा या फिर देशद्रोह?
राहुल गांधी के हालिया बयान ने एक बार फिर साफ कर दिया है कि उनकी राजनीति का केंद्रबिंदु सिर्फ़ सरकार की आलोचना नहीं, बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की छवि को कमजोर करना है।
भारत आज वैश्विक मंच पर मजबूत हो रहा है। ऐसे समय में अगर देश का एक बड़ा नेता लगातार यह कहे कि भारत असफल हो रहा है, तो क्या यह राष्ट्रहित है?
जनता की नजर में यह “भारत जोड़ो” नहीं, बल्कि “भारत तोड़ो” की राजनीति है।
सवाल साफ़ है —
क्या भारत का भविष्य ऐसे नेता के भरोसे छोड़ा जा सकता है, जो देश की छवि को विदेश जाकर चोट पहुँचाए?